कोरोना काल और गांधीजी का ट्रस्टीषिप सिद्धांत

कोरोना के मामले एक बार फिर तेजी से बढ़ रहे हैं। पिछले वर्ष कोरोना के कारण लंबा लाॅकडाउन लगाना पड़ा था। जिसका हमारी अर्थव्यवस्था पर कुप्रभाव अभी तक है। विशेषतः रोज कमाने-खाने वाले मजदूर और कामगारों का हाल बेहाल हो गया है। लोग बेरोजगार हो गए हैं, उत्पादन ठप्प पड़ा है। इकोनाॅमी को मजबूत करने में सरकार अनेक योजनाओं को अमली जामा पहना रही है, लेकिन इन सबके बावजूद बात बन नहीं रही। ऐसे में महात्मा गांधी का ट्रस्टीशिप के सिद्धांत को लागू करना आज समय की मांग है।ट्रस्टीशिप गांधीजी का वह सिद्धांत है, जिसके जरिए उन्होंने भारत में आर्थिक समानता का सपना देखा था। वह चाहते थे कि देश का पैसा मुट्ठी भर लोगों के हाथ में न हो, अपितु यह आमजन के कल्याण में खर्च हो, ताकि देश में मानव-मानव के बीच फैली असमानता की खाई को भरा जा सके।
क्या है ट्रस्टीषिप का सिद्धांत-ट्रस्टीशिप का सिद्धांत गांधीजी की आर्थिक सोच का सबसे महत्वपूर्ण बिन्दु है। गांधीजी पूंजीवाद के खिलाफ थे। वे वसुधैव कुटुम्बकम में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि समाज एक परिवार की तरह है। जिस तरह से एक परिवार में संपन्न भाई अपने अपेक्षाकृत कमजोर भाई की आर्थिक सहायता कर, उसे पालता है यही भावना पूरे समाज और विश्व में भी होनी चाहिए। समाज के संपन्न लोग आगे आएं और अपने से कमजोर आर्थिक स्थिति वाले लोगों की सहायता करें। उनका मानना था कि संपन्न लोग अपनी पूंजी के मालिक न होकर, उसके ट्रस्टी बनें, उसके संरक्षक बने और देश, समाज, विश्व की सहायता करें। गांधीजी जानते थे कि आजादी के बाद भारत को संचालित करने में आर्थिक असमानता सबसे बड़ी बाधक बनेगी। अमीर और गरीब में खाई बढ़ेगी। इसलिए वह चाहते थे कि अर्थव्यवस्था ऐसी हो, जिसमें अमीरों की कमाई का स्तर एक हद से आगे न बढ़े और मजदूर-कामगार व निचले तबके के लोगों की कमाई एक स्तर से नीचे न गिरे। ट्रस्टीशिप के इस सिद्धांत के बारे में बताते हुए गांधीजी कहते हैं,‘‘ ईश्वर सर्वशक्तिमान है। इसलिए उसे संग्रह करके रखने की आवश्यकता नहीं। वह रोज पैदा करता है। इसलिए मनुष्य का भी सिद्धंात होना चाहिए, वह उतना ही अपने पास रखे, जिससे आज का काम चल जाए। कल के लिए वह चीजें जमा करके न रखे। अगर आम तौर पर लोग इस सत्य को जीवन में उतार लें, तो वह कानून सम्मत बन जाएगा और संरक्षकता एक वैध संस्था बन जाएगी। मैं चाहता हूं कि यह भारत की संसार को एक देन बन जाए।‘‘
मूलतः गांधीजी का ट्रस्टीशिप का सिद्धांत राज्यों की अर्थव्यवस्थाओं को चंद पूंजीपति लोगों के हाथों से निकालकर, समस्त जनता को देने की वकालत करता है। गांधीजी के इस सिद्धांत का विवरण उनके सचिव प्यारेलाल ने किया है। इस विवरण को पुस्तक ‘सर्वोदय’ में संकलित किया है। प्यारेलाल जी के अनुसार,‘‘ट्रस्टीशिप ऐसा साधन प्रदान करती है, जिससे समाज की मौजूदा पूंजीवादी व्यवस्था समतावादी व्यवस्था में बदल जाती है। इसमें पूंजीवाद की तो कोई गुंजाइश नहीं है, मगर यह वर्तमान पूंजीपति वर्ग को अपना सुधार करने का मौका देती है। इसका आधार यह श्रद्धा है कि मानव स्वभाव ऐसा नहीं है, जिसका कभी उद्धार नहीं हो सके। वह संपत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व का कोई हक मंजूर नहीं करती, हंा उसमें समाज अपनी भलाई के लिए किसी हद तक इसकी इजाजत दे सकता है। उसमें धन के स्वामित्व और उपयोग के कानूनी नियमन की मनाही है। इस प्रकार राज्य द्वारा नियंत्रित संरक्षकता में कोई व्यक्ति अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिए या समाज के हित के विरूद्ध संपत्ति पर अधिकार रखने या उसका उपयोग करने के लिए स्वतंत्र नहीं होगा।
जैसे उचित न्यूनतम जीवन-वेतन स्थिर करने की बात कही गई है, ठीक उसी तरह यह भी तय कर दिया जाना चाहिए कि समाज में किसी भी व्यक्ति की ज्यादा से ज्यादा कितनी आमदनी हो। न्यूनतम और अधिकतम आदमियों के बीच का फर्क उचित, न्यायपूर्ण और समय≤ पर इस प्रकार बदलता रहने वाला होना चाहिए कि उसका झुकाव उस फर्क को मिटाने की तरफ हो। गांधीवादी
अर्थव्यवस्था में उत्पादन का स्वरूप समाज की जरूरत से निश्चित होगा, न कि व्यक्ति की ज्यादा सनक या लालच से।’’
गांधीजी के ट्रस्टीशिप सिद्धांत को अव्यवहारिक बताते हुए इसे खारिज करने की कोशिश की गई। उद्योगपतियों ने तो इसमें कोई सहयोग नहीं दिया। हालांकि ट्रस्टीशिप के सिद्धंात को कानूनी जामा पहनाने की भी समय≤ पर कोशिशें की जाती रहीं। सर्वप्रथम 1967 में डाॅ. राममनोहर लोहिया ने ट्रस्टीशिप बिल संसद में पेश किया, लेकिन यह पास नहीं हो पाया। उसके बाद इसी बिल को समाजवादी नेता जाॅर्ज फर्नान्डीस संसद मंे लाए। उसके बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने भी ट्रस्टीशिप बिल को संसद में रखा। लेकिन किन्हीं कारणों से ये बिल अटका रहा। ट्रस्टीशिप को कानून बनाने की कोशिश एक बार 1978 में भी की गईं। उस समय डाॅ. रामजीसिंह ने जनता ट्रस्टीशिप बिल’ के नाम से इसे पेश किया। इस पर सदन में चर्चा भी हुई, लेकिन दुर्भाग्य से यह बिल चर्चा से आगे नहीं बढ़ पाया।

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