बेचारी सरकारें….। इतना काम करती हैं…इतना काम करती हैं…लेकिन फिर भी किस्मत में यश ही नहीं है। कितना भी काम कर लो, फिर भी प्रजा शिकायतें ही करती रहती हैं। ऐसे में कहां जाएं सरकारें…। देश में लोकतंत्र है। लेकिन सब लोक की चिंता करते हैं] तंत्र को कोई नहीं पूछता। बेचारा तंत्र यानि सरकार करे तो क्या करे।
इधर सरकारें दावा करती हैं-चारों तरफ खुशहाली है] अपार वैभव है] असीमित हर्ष है। सब लोग सुखी हैं। सब जन के पास धन है। भूख से आकुल पेटों को अनाज से पाट दिया गया है। पिछली सरकारों के राज में मजदूर] कामगारों] किसानों को दो जून की रोटी भी नही मिलती थी। अब तो सरकार ने अप्रैल मई जून जुलाई तक की रोटी का इंतजाम कर दिया है। पहले लोग बदहाल थे। फटेहाल थे। किन्तु अब ऐसा नहीं है। अब हर हाथ को काम है। हर व्यक्ति तृप्त है। वर्तमान सरकारें दावे करती है कि पुरानी सरकारों के टाइम भूख से लोगों के पेट चिपक जाते थे। लेकिन सरकार की बढ़िया नीतियों से अब लोग खूब खा रहे हैं] लिहाजा उनका पेट फूल रहा है। अब आंतें कुलबुला नहीं रही] अपितु खा-खाकर बदहजमी का शिकार हो रही है। इधर सरकार तमाम तरह के दावे करती है। बुलंद भारत की बुलंद तस्वीर पेश करती हैं। उधर रेल की पटरी पर बिखरी रोटियां] हाइवे पर बदहवास भागते मजदूर] ट्राली बैग से चिपककर सोता बच्चा] इस बुलंद भारत की तस्वीर में दाग लगा देते हैं। आनन-फानन में सरकारें भागती हैं] एक्सप्रेस हाइवे] सी लिंक पर चले जा रहे मजदूरों को वापस लाती हैं। फिर प्रेस सम्मेलन कर] सम्पादकों को गरीबी दूर करने और सब कुछ ठीक करने की योजनाएं समझाती हैं।
फिर से दावे किए जाते हैं कि महामारी से बेघर लोगों को हम खाना खिला रहे हैं। हलवा पूरी बांट रहे हैं। आलीशान क्वारंटीन सेंटर में मजदूरो को रखा गया है। बसें-ट्रेनें भी चला दी गई हैं। अब सब राइट है। खुशहाली है। प्रजा के सभी गम हर लिए गए हैं। इधर सरकारों के दावों को चैनल वाले चलचित्र की माफिक दिखा ही रहे होते हैं कि फिर से कुछ चित्र आ जाते हैं। क्वारंटीन के बदहाल व टूटे टायलेट के चित्र भोजन में कीड़ों के चित्र] ट्रकों में भेड़-बकरियों की तरह] भरे गए मजदूरों के चित्र…।
लेकिन मेहनती सरकारें फिर से डैमेज कंट्रोल में लग जाती हैं। इस बार वे अपनी गरीब उत्थान वाली योजनाओं के बड़े-बड़े विज्ञापन अखबारों में भी छपवाती हैं। अखबार वाले भी बड़े उस्ताद टाइप हैं। सरकारों से भारी-भरकम पैसे लेकर पहले पन्ने पर बुलंद भारत वाली एड छाप देते हैं और दूसरे पन्ने पर भूख से व्याकुल मजदूरों] नौकरी से निकाले गए बेरोजगारों की खबर छापकर बुलन्द भारत की बुलंद तस्वीर में छेद कर देते हैं। लाकडाउन में ओजोन लेयर का छेद भले ही भर गया हो, किन्तु सरकारों की बुलन्द भारत वाली तस्वीर का छेद भर ही नहीं पा रहा।
लेकिन सरकारें तो सरकारें हैं साहब… वे कहां हार मानती हैं। पुनः उठ खड़ी होती हैं] जनता की सेवा करने। सरकारें और उनके पीआर ग्रुप वाले फिर से कागज पर उकेरने लगते हैं बुलन्द भारत की बुलन्द तस्वीरें…….।