बेचारा पुल….

बेचारा पुल…..। कब तक सामना करे बरसात का….कब तक सहे इंद्रदेव का कोप। अब कलयुग में कहीं भगवान कृष्ण तो हैं नहीं…. जो उठा ले गिरीराज और रक्षा कर ले इस पुल की। सो मदद के अभाव में भरभराकर गिर जाता है, बेचारा पुल…..।

बेचारा पुल…..। जब बनता है तो लोगों में आशा जगाता है। विकास की आशा] तरक्की और प्रगति की आशा। पुल बनेगा] तो गाड़ियां सरपट दौडेंगी। सड़कों की दूरियां तो कम होंगी ही] आवागमन सुलभ होने से दिल की दूरियां भी कम होंगी। यातायात सुलभ होगा तो व्यापार और कारोबार के अवसर बढ़ेंगे। इसी आस में लोग अपने गांव के सामने बन रहे पुल को टकटकी लगाए देखते रहते हैं। भले ही इस निर्माणाधीन पुल ने उनके खेत-खलिहान, उनकी जमीन, उनकी पहचान छीनकर चंद सिक्के पकड़ा दिए हों। फिर भी बेहतर भविष्य का सपना लिए बनते हुए पुल को देखकर लोग खुश होते हैं। आस लगाते हैं।

बेचारा पुल…..। जब ये बनकर तैयार होता है, तो नजारा देखने लायक होता है। सरकारें वाहवाही लूटती हैं कि देखो हमने बना दिया पुल। दूसरी सरकारों ने कागज पर बनाया था, लेकिन हमने असल में बना दिया। अब बाढ़ से गांवों की रक्षा होगी। अब ‘होरी’, ‘बिरजू’ अपनी फसल मंडी में बेचने उबड़-खाबड़ रास्तों से नहीं सुंदर पुल के रास्ते से जाएंगे। उधर विपक्षी लोग मीडिया के सामने दस्तावेज उछाल-उछालकर दिखाते हैं कि इस पुल की योजना तो उनके कार्यकाल में बनी थी। हम ही लड़-झगड़कर इस परियोजना को मंजूरी दिलवाकर यहां लाए थे। इस सरकार ने तो बस इसे अपना नाम दे दिया है। यानि खीर हमारी पकाई हुई है, आज की सरकार ने तो बस इसमें काजू-बादाम डाले हैं। पक्ष-विपक्ष में पुल के उद्घाटन का श्रेय लेने को लेकर सिर-फुटौव्वल होती है। लेकिन जिसकी लाठी उसी की भैंस….। फीता तो वर्तमान मंत्री जी ही अपने चमचों सहित काटेंगे, सो वो काटते हैं और पुल लोक को अर्पण यानि लोकार्पण कर दिया जाता है।

बेचारा पुल…..। लगातार बारिश हो रही है, मूसलाधार। पानी चारों और बहता-बहता थोड़े दिन पहले बने पुल पर भी चढ़ जाता है। पुल के नीचे भी पानी, पुल के उपर भी पानी। इसी पानी में तैरते दिखते हैं सरकार के विकास के दावे। इसी पानी में बह जाते हैं सरकारी वादे। कमीशनखोरी की सीमेंट, रिश्वत का गारा, हरामखोरी का रेत, भ्रष्टाचार का पत्थर, सरकारी इंजीनियरों की स्किल…सब इस पानी में बहते हुए दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे फ्लैग लगी पीडबल्यूडी की मोटी-मोटी फाइलें, कनिष्ठ, वरिष्ठ इंजीनियरों से लेकर ठेकेदारों की अप्रूवल फाइलें, सब बरसात के पानी में तैरती हुई बही जाती हैं। अब पुल तो पुल ठहरा। सरकारी कुव्यवस्थाओं का कितना बोझ झेले। इतनी फाइलें, इतनी कमीशनखोरी का बोझ कैसे अपने सुकुमार कन्धों पर उठाये. इसलिए जनप्रतिनिधियों की नैतिकता की तरह नीचे गिर जाता है बेचारा पुल…..।

बेचारा पुल…..। फिर से खड़े होने की कोशिश करता है. ‘आपदा में अवसर’ ढूँढने को आतुर सरकारी तन्त्र पुल रिपेयरिंग के लिए फिर से मोटी फाइलें बनानी शुरू करता है. बाबू लोग एस्टीमेट बनाने की तैयारी में जुट जातें हैं. इन्जिनियरों, ठेकेदारों की आखों की चमक बढ़ जाती है. अभी तक पुल बनाने के नाम की मलाई खा रहे थे. अब रिपेयरिंग के नाम की बर्फी खायेंगे… ।  सरकारी प्रयासों से पुल एक बार फिर खड़ा होता है. मंत्री जी फिर अपने चमचों, कटोरों के साथ आते हैं, और पुन: लोकार्पण का रिबन काट आते हैं. चारों दिशाएं फिर से जश्न में लग जाती हैं.. लोगों को फिर से आस बंधाई जाती है। सरकार ने पुल पर सेल्फी पॉइंट भी बना दिया है. जनता पुल के इर्द-गिर्द खड़े होकर पाऊट बनाये फिर रही है. उधर जश्न से दूर खड़ा स्थिर भाव से ‘लोकतंत्र’ का यह गजब तमाशा देखता रहता है…बेचारा पुल।

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